पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६१

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अंग परयौ थहरि लहरि ग रंग परयौ, तंग पर्यो बसन सुरंग पँसुरीनि पै। पंचजन्य चूमन हुमसि हाँठ वक्र लाग्यौ, चक्र लाग्या घूमन उमगि अँगुरीनि पै ॥५॥ औचक चकित सब जादव-सभा कै नाथ, वोलि उठे कौरव-गुमान अब छूटैगौ । कहै रतनाकर बहुरि पग रोपि कयौ, पांडव बिचारनि को दुख अब छूटैगौ ॥ अंबर को काल को हली को हरि हरहूँ कौ, संतत अनंतता बिधान जब छूटैगो । छूटेगा हमारौ नाम भक्त-भीर-हारी जब, द्रुपद-सुता कौ चीर-छीर तब छूटैगौ ॥६॥ भरि दृग नीर ज्यौँ अधीर द्रौपदी है दीन, कीन्यौ ध्यान कान्ह की महान प्रभुता कौ है । कहै रतनाकर त्यौँ पट में समान्यौ आइ, अकल असीम भाइ दीनबंधुता कौ है । भौचक समाज सब औचक पुकारि उठ्यौ, गारि उठ्यौ गहव गुमान गरुता का है । चौदहै अनंत जग जानत हुते पै यह, पंद्रही अनंत चीर द्रुपद-सुता की है ॥७॥