पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कोऊ कई कुरु-कुल-रूप-पाप-खंडन कॉ, उमड़ति अखिल अखंड-धार गंग है। मे जान दीन-दुख-दंद हरिवे कौँ यह, करुना - अपार रतनाकर तरंग है ॥१०॥ कैयौँ पाँडु-पूतनि कौ कछुक पखंड यामैं , कोऊ अभिहार के सभा को ज्ञान लूट्यौ है । कैधौँ कछु वाही कलछल-रतनाकर कौ, नटखट नाटक इहाँहूँ आनि जूट्यौ है । कहत दुसासन उसास न सँभारयौ जात, साहस हमारौ जात सब विधि छुट्यौ है । लागि गए अंबर लौँ अखिल अटंबर पै, द्रुपद-सुता को अजौँ अंबर न खूट्यौ है ॥११॥