पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६४

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(८) तुलसी-अष्टक साधन की सिद्धि रिद्धि सगुन अराधन की, सुभग समृद्धि-बृद्धि सुकृत-कमाई की। रतनाकर सुजस-कल-कामधेनु, ललित लुनाई राम-रस-रुचिराई की। सब्दनि की बारी चित्रसारी भूरि भायनि की, सरबस सार सारदा की निपुनाई की। दास तुलसी की नीकी कबिता उदार चारु, जीवन अधार औ सिँगार कबिताई की ॥१॥ बिसद विबेकी सुभ संत-हंस-बंसनि कौं, महिमा महान मंजु मान सरवर की। कहै रतनाकर रसिक कबि-भक्त-काज, राम-सुधा-सी चो साख देव-तरुवर की ॥ भव-भय-भूत-भीति निखिल निवारन कौं, जंत्र-मंत्र पाटी लिखी सिद्ध कर वर की। दास तुलसी की कल कविता पुनीत लसै, जग-हित-हेत नीकी नीति नरवर की ॥२॥