पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६७

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(६) बसंताष्टक एकाएक आई कहूँ बैहर बसंतवारी, संतवारी मंडली मसूसि त्रसिबै लगी। कहै रतनाकर दृगनि ब्रज-वासिनि कैं, रंगनि की बिसद वहार बसिबै लगी। मसकन लागे बर बागे अंग-अंगनि पै, उरज उतंगनि पै चोली चसिवै लगी। धुनि डफ-तालनि की प्रानि बसी प्राननि मैं ध्याननि मैं धमकि धमार धसिबै लगी ॥१॥ पथिक तुरंत जाइ कंतहि जताइ दीजी, आइगौ बसंत उर अमित उछाह लै । कहै रतनाकर न चटक गुलाबनि की, कोप के चढ़त तोप मैन बादसाह लै ॥ कोकिल के कूक नि की तुरही रही है बाजि, बिरहिनि भाजि कहा कौन की पनाह ले। सीतल समीर पै सवार सरदार गंध, मंद मंद आवत मलिंद की सिपाह लै ॥२॥