पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७

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लाग सुखद समीर अंग आरस-रस भोए, पलकै लई लगाइ दोऊ आनंद समोए । सावत जानि सुजान सखी गहि मौन थिरानी, इक इक करि टरि सकल जाइ कुंजनि बिरमानी ॥९७॥ आहट बिगत बिचारि चारि दिसि प्रीतम प्यारे, हाँस भरे ग सहज सहज सहुलास उघारे । मानहुँ साँचहिँ लगी नीदै कहि हँसि सुखदाई, गुदगुदाइ गोरिहुँ दृग की अलसानि छुड़ाई ॥९८॥ आपुहुँ उतरि निकुंज चले दुहुँ दुहुँ सुखकारी, जय जय जुगल किसोर जयति ब्रज-बिपिन-बिहारी। जय दोउ इक-मन एक-पान एकहि-रस-मय जय, आकारहि करि पृथक स्याम स्यामा जय जय जय॥९९॥ सावन सुकल पुनीत परम तिथि पूरनमासी, रतनाकर-उर मैं तरंग उमड़ी सुखरासी।

  • मन इंद्रिय अरु भक्ति सहित गोपालहिलायौ,

तिहि तरंग मैं रचि झूलन अति रुचिर झुलाया॥१०॥ संवत् १९५१ ।