पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७१

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(१०) ग्रीष्माष्टक छायौ रितु ग्रीषम को भीषम प्रचंड दाप, जाकी छाप सब छिति-मंडल सही लगी। कहै रतनाकर बयारि वारि सीरे कहूँ, पैयै नैं कु एक रहै अहक यही लगी। करवट लै लै बरवट ही बिताई राति, पलक लगाए हूँ न पलक रही लगी। अबहीँ सिरान्यौ ना सँताप कलही कौ फेरि, ताप सौं तपाकर के तपन मही लगी ॥१॥ आवा सौ अकास औनि तावा सी तपति तीखी, दावा सौँ दुगुनि झारझरस झलाका मैं । कहै रतनाकर गई है रहि रंचक हूँ, झपट न बाज मैं न झझक बलाका मैं ॥ हेरत फिरत बारि बृच्छ कहलाने सबै, होति अठकौसल कुरंगी औ अलाका मैं । मंजुल मलाका हू न हिय सियराबैं नैं कु, तपित सलाका भई जेठ की जलाका मैं ॥२॥