पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७२

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ग्रीषम को भीषम प्रताप जग जाग्यौ भए, सीत के प्रभाव भाव भावना भुलानी के। कहै रतनाकर त्यौँ जीवन भयौ है जल, जाके बिना मानस सुखात सब पानी के ॥ नारी नर सकल बिकल बिललात फिरौं, भूले नेम प्रेमहूँ की कलित कहानी के । ताहूँ सौं न काहू को हियौ है सरसात रंच, पंच-सरहूँ के भए सर बिन पानी के ॥३॥ सीरी सी लगति बिरहागिनि बियोगिनि काँ, जोगिनि का होत पंच-तापहू सुहाया है। कहै रतनाकर तपाकर ससी काँ जानि, रैनहूँ चकोरी के न चैन चित आयौ है ॥ सोखे लेत बारि सबै भानुहूँ पिपासित है, त्रासित है हिमगिरि-गैल धरि धायौ है । प्रबल प्रचंड भरि भीषम अखंड-दाप, ग्रीषम के ताप कौँ प्रताप जग छायौ है ॥४॥ नीर-भरी-नहर-लहर जो चहूँघाँ हुती, ताहि ताइ तुरत सुखाइ कियौ माटी है। कहै रतनाकर हिमोपल की रेलारेल, हेलि हठि पैठति निरंकुस निराटी है ॥