पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७३

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ग्रीषम की भीषम अनीकनी दपेटे लेति, फोरि गढ़ गहब उसीरनि की टाटी है । आबवारे-फबत-फुहारे-बान-धारहूँ साँ, व्यजन-कुठारहूँ साँ कटति न काटी है ॥५॥ फटिक-सिलानि-रचे राजत अनूप हौज, मौज सौं फुहारे फर्दै पाठहूँ पहल मैं । कहै रतनाकर बिछाइ तिन पास सेज, सुखद अँगेजि कै सुगंध की चहल मैं ॥ छात छिति छिरकी कपूर चोवा चंदन सौं, सीत छिपी आनि जहाँ ग्रीषम दहल मैं । अंग अंग अमित उमंग की तरंग भरे, दोऊ सुख लहत उसीर के महल मैं ॥६॥ टटकी उसीरनि की टाटी चहुँ ओर लगी, सराबोर सुखद सुगंध बहतोल मैं । कहै रतनाकर त्यौँ फहरैं गुलाब-वारे, फबत फुहारे मनि-हौजनि अमोल मैं ॥ घसि घनसार चारु चंदन को पंक तासौं, घेरि राखिबे कौं सीत समर-कलोल मैं । प्यारो रचै प्यारी के उरोज माहिँ मक्र-ब्यूह, चक्र-व्यूह प्यारी रचै प्यारे के कपाल मैं ॥७॥ "