पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७६

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छाई सुभ सुखमा सुहाई रितु पावस की, पूरब मैं पच्छिम मैं उत्तर उदीची मैं । कहै रतनाकर कदंब पुलके हैं बन, लरजें लवंगलता ललित बगीची मैं ॥ अवनि अकास मैं अपूरब मची है धूम, भूमि से रहे हैं रुचि सुरस उलीची मैं । हिरकि रही है इत मोर सौं मयूरी उत, थिरकि रही है बिज्जु बादर दरीची मैं ॥३॥ घेरि लीनी आनि जानि अबला अकेली मानि, मरक अनंग की उमंग सरसत हैं। कहै रतनाकर पपीहा कड़खैत लिए, पी कहाँ कहाय चढ़ि चाय अरसत हैं ॥ कंसहू के राज भए ऐसे ना कुकाज हाय, जैसे आज ऊधौ दुख-साज दरसत हैं । बादर से बीर ब्योम बायु के बिमान बैठि, बूंदनि के बान बनिता पै बरसत हैं ॥४॥ झूमि भूमि झुकत उमंडि नभ-मंडल मैं, घूमि घूमि चहुँघा घुमंडि घटा घहरें । कहै रतनाकर त्यौँ दामिनि दमकै दुरौं, दिसि बिदिसानि दौरि दिव्य छटा छह ॥