पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७७

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सार सुख संपति के दंपति दुहूँ के दुहूँ, अंग अंग जिनके उमंग भरे थहरैं। फूलनि के झूलन पै सहित अनंद लेत, सीतल सुगंध मंद मारुत की लहरैं ॥५॥ झूलत हिँडा दुहूँ बोरे रस रंग जिन्हैं , जोहत अनंग-रति-सोभा कटि कटि जाति । मंजु मचकी सौँ उचकत कुच-कोरनि पै, ललकि लुभाइ रसिया की डीठि डटि जाति ॥ देखत बनै ही कछु कहत बनै न नैं कु, बाल अलबेली जव लाज सौं सिमटि जाति । हटि जात घूघट लटकि लाँबी लट जाति, फटि जाति कंचुकी लचकि लोनी कटि जाति ॥६॥ चहुँ दिसि छाई हरियाई सुखदाई जहाँ, सोहति सुहाई तापै फवनि फुहीनि की। कहै रतनाकर ब्रजंगना उमंग-भरी, झूलत हिंडोर झोसुखमा सुरीनि की ॥ भाषै चित-चाव कौन भौन-सुख-भोगिनि को, डहकि डगाए देति मनसा मुनीनि की। ऊरुनि की हचक सु उचक उरोजनि की, लंक की लचक औ मचक मचकोनि की ॥७॥