पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७९

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(१२) शरदष्टका विकसन लागे कल कुमुद-कलाप मंजु, मधुर अलाप अलि अलि उचार है। कहै रतनाकर दिगंगना-समाज स्वच्छ, कास-मिसि हास के बिलासनि पसार है। कार-चाँदनी में रौन-रेती की बहार हेरि, याही निरधार ही हुलास भरि धार है जीति दल वादल के परव पुनीत पाइ, कूल कालिँदी के चंद रजत बगार है॥१॥ पौन अति सीतल न तपत सुगंध-सने, मंद मंद बहत अनंद-देन-हारे हैं। कहै रतनाकर सुकुसुमित कुंजनि मैं, वैठि उठि भ्रमत मलिंद मतवारे हैं। छिटकति सरद-निसा की चाँदनी सौं चारु, दीपति के पुंज परै उचटि उछारे हैं। स्वच्छ सुखमा के परि पूरित प्रभा के मनौ, सुंदर सुधा के फूटि फबत फुहारे हैं ॥२॥