पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४८८

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जोगी भयौ चाहत सँजोगी भोगी जोगी भयौ, मति जुवती मैं पंच-पावक मैं वै रही । पैठे जात सिमिट भवानी के पबर मैं, अंबर की चाह यौँ दिगंबर कौँ है रही ॥५॥ मृगमद - केसर - अगर - धूप - धूम काँपि, सीत-भीत काँपनि की रीतिहिँ बुझा हैं । कहै रतनाकर त्यौँ परदे दरीचिनि के, हिलि हिलि हिलन अजोगता सुझाबैं हैं ।। संग-सुख-संपति न दंपति बिहाइ सके, प्रीति सौ परस्पर यौँ भाषि अरुझाएँ हैं। सिसिर-निसा मैं निसरन को न बाह कहूँ, गिलिम गलीचा पाइ गहि समुझाबैं हैं ॥६॥ मृग-मद केसर - अगर - धूम जालनि को, सुखद दुसालनि को जदपि सहारौ है। कहै रतनाकर पै आनत बिचार आन, कॉपि जात गात सब हहरि हमारौ है । तन की कहा है अब आनि मनहूँ पै परयौ, ऐसौ कछु सिसिर-प्रभाव को पसारी है। प्रानहूँ तैं प्यारौ मान लागत सखी पै आज, मानहूँ तैं प्यारौ लगै पीतपटवारौ है ॥७॥