पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४८९

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मंजुल मकंदनि के कॉपल सचोप लखें, लागे गान गुनन मलिंद छिन द्वैक तैं । कहै रतनाकर गुलाबनि मैं चौड़ी लगी, औंड़ी ओप औरही अनूप इन द्वैक तैं ॥ केसरि - कुरंगसार - लेप न सुहात अंग, कन घनसार के मिलावै किन द्वैक ते । दाबी रहै हाँसनि को द्रुमस न ही मैं अब, फावी फाव सीत पै गुलाबी दिन द्वैक ॥८॥