पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९

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नर विवेचना, घडिनि समान, मिलति द्वै नाही, पै अपनी अपनी का सब पतियात सदाही । कबिनि माहिँ सदकाव्य-सक्ति बिरलय ज्यौ आई, बिबेचकनि-भाग रसास्वादन-लघुताई दैव दियें बिनु सुभग सक्ति दोऊ नहिँ पावत, लिखन-हेत कै तर्क-हेत जे इहि जग आवत । ते सिखवन के जोग्य आप जे होहिं कुसलतर, ते दूषहिँ तो फबै आप जिनि कियौ काब्य बर ॥ निज रचना को पच्छ साँच यह कर्तन माही, पै निज मत कौं कहा बिबेचक कौँ हठ नाही ? पै करि गूढ़ विचार चारु मति मत यह भाषत, बहुधा मनुष बिबेक-बीज निज हिय मैं राखत ॥ कम सौँ कम इक अल्प प्रकास प्रकृति दिखरावति, रेखा, जदपि अपष्ट तदपि, सुध खंचित भावति । पै उद्धस ढाँची उत्तम औ सुभग चित्र को, जदपि यथारय बिरचित लसत, ललित चरित्र को, भरे रंग बेढंग भदेस तदपि ज्यों भासै, त्यौं निकाम विद्या सुबुद्धि कौं बिसिष बिनासै । विद्यालय-जालनि मैं केतिक हैं बौराने, बने झंडेहर किते, प्रकृतिकृत कूर अयाने ।