पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९१

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द्विज-गन लाग्यौ मंत्र पढ़न सजीवन औ, सुमन-समूह दै सचोप चुटकी उठ्यौ। कहै रतनाकर रुचिर रस रंग पाइ, उपवन जंगल है मंगल मई उठ्यौ ।। मानद प्रभात-परमानंद अमंद मंद मलयानिल यौँ वरसि अमी उठ्यो । आछे अंगधारिनि को चरचा-प्रसंग कहा, नवल उमंग सौँ अनंग पुनि जी उठ्यौ ॥३॥ पाइ, पेखन कौँ प्रात-प्रभा उपबन बृदनि की, नंदन की सभा सब सिमिटि इतै रही । कहै रतनाकर त्यौँ प्रकृति निछावर कौं, ओस मुकताली बगराइ अमित रही । मंद मलयानिल को परस-प्रमोद पाइ, बलित बिनोद बल्ली बिटप हित रही। विवस बिसारि चकवा साँ मिलिबे को चाव, चकई चहूँघाँ चित चकित चितै रही ॥४॥ प्यारे प्रात आवन की बिसद वधाई देत, डोलैं मंद मारुत सुगंध सुचि धारे हैं। कहै रतनाकर सु आहट-प्रमोद पाइ, गाइ उठे विपुल विहंग चहकारे हैं ।