पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९२

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फूलनि पै मंजु महि-हरित-दुकूलनि पै, ओस-कन झूलै झलमल-दुतिवारे हैं। स्वच्छ सुखमा के मनौ छूटत फुहारे ताके, बिंदु छटकारे चहुँ-ओरनि बगारे हैं ॥५॥ जाके अरुनच्छद उमंग को प्रसंग पाइ, सुखद सुगंध पौन मंद मंद थरके । कहै रतनाकर सुमन-गन फूलि उठे, दिग-बनितानि पै अनूप रूप छरके ॥ करत जुहार चारु चहकि उचाइ ग्रीव, चाय-भरे चपल बिहंग फिरै फरके । आयौं देत दिवस बधायौ बर हेम-हंस, मोती मंजु चुनत सु जोती-पुसकर के ॥६॥ चंचरीक चाय-भरे चाँचरि मचाई चारु, पच्छिनि धमार राग रुचिर उचारयौ है। कहै रतनाकर सुमन-गन .फूलि फूलि, परिमल-पुंज लै अबीर मंजु पारचौ है । सुखमा बिलोकि बल्ली बिटप बिनोद-भरे, भूमि भूमि आनँद-हुलास-आँस ढारचौ है । मेलत गुलाल-रंग दिग-बनितानि अंग, राग भरचौ भानु फाग खेलत पधारचौ है ॥७॥