पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९४

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(१६) संध्याष्टक बालपन बिसद बिताइ उदयाचल पै, संबलित कलित कलानि है उमाहै है कहै रतनाकर बहुरि तम-तोम जीति, उच्च-पद आसन लै सासन उछाहै है ॥ पुनि पद सोऊ त्यागि तीसरे विभाग माहि, न्यून-तेज है कै मून पास मैं निबाहै है। जानि पन चौथौ अब भेष के भौहाँ भानु, अस्ताचल थान मैं पयान कियौ चाहै है ॥१॥ छाई छबि स्यामल सुहाई रजनी-मुख की, पियराई रही ऊपर मुरेरे के। कहै रतनाकर उमगि तरु-छाया चली, बढ़ि अगवानी हेत आवत अँधेरे के ॥ घर घर साजै सेज अंगना सिँगारि अंग, लौटत उमंग भरे बिछुरे सबेरे के। जोगी जती जंगम जहाँ ही तहाँ डेरे देत, फेरे देत फुदकि विहंगम बसेरे के ॥२॥