पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९६

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कुमुद सरोज अध मुकुलित देखि परें, चाय-बोरी चहकि चकोरी चकराति है। चलि चलि चकई चपल दुहुँ ओर चाहि, चकित कराहि औ उमाहि रहि जाति है ॥५॥ तुंग कुच-सृग-सैल-सिखर सराहैं अजी मान जुवती तन मैं थान परषत है। जानि यह उदित निसापति मनोज-बंधु, धिक निज धाक मन मानि मरषत है ।। लाल है बिसाल कर प्रखर पसारि बेगि, जासौं जोम-धारिनि को धीर धरषत है। मुकुलित कुमुद - मियान अतंक - जुत, बक भ्रमरावली - कृपान करषत है॥६॥ राग की बगीची जो सँजोगिनि प्रतीची गनै, स्रोनित-उलीची सो बियोगिनि बतावै है। कहै रतनाकर चकोरनि अनंद देत, सोई चंद कोकनि के ओक सोक छावै है। मनि-गन लागत तुम्हें तो उड़गन आली, फनि मनि-माली लौं हमैं से डरपावै है। खेलौ हँसो जाइ जाहि भावत सलोनी साँझ, ह्याँ तो जरे माँझ सा लुनाई लोन लावै है ॥७॥