पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९७

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लागै रजनी-मुख की सुखमा सुहाई ताहि, जाहि सुखरासि की न आस टरि गई होइ । कहै रतनाकर हिमाकर-मुखी के हाँस, दिवस-कसाला-जगी ज्वाला हरि गई होइ ।। पूछा पर जाइ वा वियोगी के हिये सौं नैं कु, जाकी थाकी पीडॅरी भभरि भरि गई होइ । उठत न होइ पाय गाँय-सामुहूँ लौँ आइ, धाइ मग माँझ हाय साँझ परि गई होइ ॥८॥