पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९९

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बोधन मदंध अंध-पूत दुरजोधन कौं, दीनबंधु आनि रथ-कंध ठहरत हैं। कहै रतनाकर तरंगित उमंग-रंग, स्याम-घन अंग छनदा लौँ छहरत हैं । निस्वन-निनाद औ असंख संख-बाद मिले, जान आदि घुमड़ी घटा लौँ घहरत हैं। थहरत चक्रपानि सारँग भुजा पै सज्यौ, अच्छय धुजा पै पच्छिराज फहरत हैं ॥२॥ दुख बनबास के अज्ञात बासहू के त्रास, रावरे कहै पै कै विसास सब झेले हैं। कहै रतनाकर बुलाइ अब कीजै न्याइ, दूरि करि जेते द्रोह मोह के झमेले हैं । दीजै बाँटि बखरे कडू तो बेगि पांडव के, दृस्य रन-तांडव के दारुन दुहेले हैं। भीषम प्रा द्रोन सौं विचार करि देखा रंच, द्रोही दुष्ट-पंचक ती पंच पर खेले हैं ॥३॥ दीजै गाँव पाँच ही हमारे कहैं पांडव कॉ, खाँडव लौं ना तो राज-साज दहि जाइँगे। कहै रतनाकर निछत्र छिति है है सवै, सूर बीर स्रोनित-नदी में बहि जाइँगे।