पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५०

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चमत्कार की खोज माहिँ निज बुद्धि नसावै, तब अपने बचाव कौँ बनन बिबेचक धावै । दहयौ जात प्रत्येक, सकै कछु लिखि कै नाही, प्रतिद्वंदिनि क्लीबनि के से द्वेषानल माही ॥ रहत सदा बुधिबिगत बिरावन कौँ अकुलाने, हँसनहार दल माहिँ मिलत अति आनंद-साने ॥ होत कुकबि कोउ कछु खचाइ जो सारद-द्वेसी, ता काब्यहु तें तौ केतिनि की जाँच भदेसी ॥ केते कोबिद बने प्रथम, पुनि कबि मनमाने, बहुरि बिबेचक भए, अंत घाँघा ठहराने ॥ किते न कोबिद न विबेचक पद के अधिकारी, जैसैं खर न तुरंग होहिँ कहुँ खच्चर भारी ॥ ये अधपढ़े बुधंगड़ जग मैं भरे घनेरे, अर्द्ध बने ज्यौँ कीट नील सरिता के नेरे, ये अनबने पदार्थ कौन संज्ञा-अधिकारी परत न जानि पौध इनकी ऐसी भ्रमकारी; बदन हाहिँ सत तौ इनकी गनना करि आवै, कै इक मिथ्या बुध को, जो सौ सहज थकावै ॥ पै तुम जो सद-सुयस-देन-पावन-अधिकारी, सुबिबेचक पद परम पुनीत जथारथधारी, ,