पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५०३

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मुंड लागे कटन पटन काल-कुंड लागे, रंड लागे लोटन निमूल कदलीनि लौँ । कहै रतनाकर वितुंड-रथ-बाजी-झुंड, लुंड मुंड लो, परि उछरिति मीनि लौँ ॥ हेरत हिराए से परस्पर सचिंत चूर, पारथ औ सारथी अदूर दरसीनि लौँ । लच्छ-लच्छ भीपम भयानक के बान चले, सबल सपच्छ फुफुकारत फनीनि लौँ ॥३॥ भीषम के बाननि की मार इमि माँची गात, एकहूँ न घात सव्यसाची करि पावै है। कहै रतनाकर निहारि सा अधीर दसा, त्रिभुवन-नाथ - नैन नीर भरि आवै है॥ बहि बहि हाथ चक्र-ओर ठहि जात नीठि, रहि रहि तापै बक्र दीठि पुनि धावै है । इत प्रन-पालन की कानि सकुचावै उत, भक्त-भय-घालन की बानि उमगावै है ॥४॥ छूटयो अवसान मान सकल धनंजय को, धाक रही धनु न साक रही सर मैं । कहै रतनाकर निहारि करुनाकर कैं, आई कुटिलाई कछु भौंदनि कगर मैं ॥