पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५०४

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रोकि झर रंचक अरोक बर बाननि की, भीषम यौँ भाष्यौ मुसकाइ मंद स्वर मैं । चाहत बिजै काँ सारथी जो कियौ सारथ, तो बक्र करौ भृकुटी न चक्र करौ कर मैं ॥५॥ बक्र भृकुटी कै चक्र ओर चष फेरत ही, सक्र भए अक्र उर थामि थहरत हैं। कहै रतनाकर कलाकर अखंड मंडि, चंडकर जानि प्रलय खंड ठहरत हैं। कोल कच्छ कुंजर कहलि हलि का खीस, फननि फनीस मैं फुलिंग फहरत हैं। मुद्रित तृतीय दृग रुद्र मुलकावे मीडि, उद्रित समुद्र अद्रि भद्र भहरत हैं ॥६॥ जाकी सत्यता मैं जग-सत्ता का समस्त सत्व, ताके ताकि प्रन काँ अतत्त्व अकुलाए हैं। कहै रतनाकर दिवाकर दिवस ही मैं, झंप्यौ कपि झूमत नछत्र नभ छाए हैं। गंगानंद आनन पै आई मुसकानि मंद, जाहि जोहि बूंदारक-बृद सकुचाए हैं। पारथ की कानि ठानि भीषम महारथ की, मानि जब बिरथ रथांग धरि धाए हैं ॥७॥