पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५०६

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(३) वीर अभिमन्यु धरम-सपूत की रजाइ चित-चाही पाइ, धायौ धारि हुलसि हथ्यार हरबर मैं । कहै रतनाकर सुभद्रा की लडैतौ लाल, प्यारी उत्तराहू की रुक्यौ न सरबर मैं ॥ सारदूल-सावक बितुड-झुड मैं ज्यौं त्याँही, पैठ्यौ चक्रब्यूह की अनूह अरबर मैं । लाग्यौ हास करन हुलास पर बैरिनि के, मुख मंद हास चंदहास करबर मैं ॥१॥ बीरनि के मान औ गुमान रनधीरनि के, पान के बिधान भट - बृद घमसानी के । कहै रतनाकर विमोह अंध-भूपति के, द्रोह के संदोह सूत-पूत अभिमानी के ॥ द्रोन के प्रबोध दुरबोध दुरजोधन के, आयु - औधि - दिवस जयद्रथ अठानी के। कौरव के दाप ताप पांडव के जात बहे, पानी माहि पारथ - सपूत की कृपानी के ॥२॥