पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मैं। धरि धरि मारि मारि करि करि धाए बीर, सौहैं आनि धीर रह्यो भैया मैं न बाबू मैं । कहै रतनाकर न विचल्यो चलाएँ रंच, ऐसी अचलाई न लखाई परै श्राबू मैं ॥ आवत ही पास काटि डारत प्रयास बिना, मानौ चंद्रहास रास करत अलाबू पारथ के लाल पै न काहू की मजाल परी, काबू मैं न पायौ आयो जद्यपि चकाबू मैं ॥८॥ एक उत्तरा के पति राखी पति पांडव की, दीन्हें पति केतिनि जे पाइ उमगाति हैं। कहै रतनाकर निहारि रन-कौतुक सेो, जूटी सुर असुर वधूटी ललचाति हैं। बड़े बड़े बमकत बीर रनधीरनि की, कढ़ति मियान तैं कृपान थहराति हैं। श्रागै देखि घाय धाइ बरति घृताची श्रादि, पाछै पेपि पकरि पिसाची लिए जाति हैं ॥९॥