पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५१२

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(४) जयद्रथ-वध पांडव को ताप औ प्रताप दुरजोधन को, सूत-सुतहू को दाप सोधि सियराऊँ मैं । कहै रतनाकर प्रतिज्ञा यह पारथ की, द्रोनहू महारथ की धाक धोइ धाऊँ मैं ॥ सिंधुराज जटिल जयद्रथ को जीवन लै, आज अंधराज हिय आँखिनि खुलाऊँ मैं। कृष्ण-भगिनी के द्रौपदी के उत्तरा के हिये, सेोक - बिकराल - ज्वाल जरति जुड़ाऊँ मैं ॥१॥ बरुन कुबेर सुरराज आदि साखी राखि, आज गुरु द्रोनहूँ को गौरव गवाऊँ मैं। कहै रतनाकर यौँ रोस-रस-घूमि-भूमि, पारथ प्रचारयौ भूमि-मंडल कँपाऊँ मैं ॥ जापै भारतंड के रहत नभ-मंडल मैं, रुड सौं जयद्रथ को मुंड ना गिराऊँ मैं । ताप जरथी बीर अभिमन्यु तो मरे पै पर, इहिँ तन कायर कौं जियत जराऊँ मैं ॥२॥