पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५१३

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वीर अभिमन्यु मन्यु मन में न हूज्यौ मानि, जानि अब रन को विधान किमि पैही में । पाया पैठि संगहूँ न रंग-भूमि हूँ मैं जब, जैहै तहाँ को तव जहाँ अब सिधैहौं मैं ॥ काल्हि चंद्र-व्यूह पैठिवे के पहिले हाँ तुम्हें, हाल रन-भूमि को उताल पहुँचैहों में । तो तव विजय जयद्रथ सुनै है जाय, अलाप आप ऐहाँ मैं ॥३॥ + के तो ले पराजय आयो जुद्ध-भूमि में सनद्ध बर बीर क्रुद्ध, रुद्ध-बुद्धि है है नई विरुद्ध दलवारे हैं। कहै रतनाकर प्रभाकर-कराकर से, अविरल धाए विसिग्वाकर करारे हैं। धीर भए ध्वस्त हस्त-लाघव बिलोकि सबै, भागे जात अस्त-व्यस्त वीरता विसारे हैं। वान लेत मंडन उमंडत न पेखि परें, देखि परै मुंड खंडित बगारे हैं ॥४॥ + गांडिव के कांड यो उमंडि रनमंडल में, राँच्यौ रन-तांडव उदंड रिपु-झुड मैं । कहै रतनाकर विपच्छि वरिबंड लगे, लुंडमुंड लोटन धरा में सौन-कुंड मैं ॥