पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खंडित है उचटि उमंडि चंड बाननि सौं, औरनि के मुड मिलें औरनि के रुंड मैं । कुडिनि के रुंड मैं वितुंडनि के सुंड लगैं, कुडिनि के मुंड त्यौँ बितुडनि के तुंड मैं ॥५॥ सद्रथ धनंजय के धावत जयद्रथ पै, आठ-आठ प्रबल महद्रथ निवारें हैं। कहै रतनाकर सुभट प्रन-पान रोपि, कोपि कोपि मग पग पग पै जुझाएँ हैं। माच्यौ महा संगर अभंग रंग-भूमि माहि, दंग है सुरासुर अपांग सौँ निहाएँ हैं। आठहूँ महारथ पै पारथ के चंद-बान, चंद आठवें लौँ लागि मंद किए डाएँ हैं ॥६॥ पारथ कियौ जो प्रन घोर ताहि तोरन कौं, कोरि प्रान-पन सौं महारथ सकैहैं ना। मी जि मी जि हाथ कहैं नाथ रतनाकर के, भानुहूँ पयान माहिँ बिलँब लगैहैं ना ॥ सावधान चक्र आज काज अक्रता को नाहि, जौपै सक्र-पूत प्रन पालत लखैहैं ना। आपनी प्रतिज्ञा की अवज्ञा करि लैहैं पर, भक्त -भीर भंजन की संज्ञा जानि दैहैं ना ॥७॥