पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५१५

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ऐरे चक्र अक्र है रह्यो है कहा बेगि धाइ, जाइ नितै रंचहूँ विलंब कहूँ लैयौ ना । कहै रतनाकर सँदेस ना निदेस यह, कहियौ अतंक सौ ससंक सकुचैया ना ॥ जौलौं अरि-रक्त सौ धनंजय न पूरै मंग, तोला नील अंबर दिगंगना सजैयो ना। सिंधुराज-जीवन सौं जाली ना अघाइ जम, तौला जप-जनक बिराम-ठाम जैयो ना ॥८॥ गांडिव के मंडल में पांडु को सपूत क्रुद्ध, बैरिनि को चंड मारतंड लौँ चितै गयो । कहै रतनाकर प्रखर किरनाकर से, तीखे विसिखाकर सौं अंग अंग तै गयौ ॥ लागी चकचाँध यौँ मदंध अंध-पच्छिनि काँ, अच्छिनि के आगे अंधकार - धुंध छै गयौ । मूभि परयौ आपनौही दावँ ज्यौँ जुवारिनि काँ, झि परयौ देखत दिवाकर अथै गयौ ॥९॥ रोधन के भानु दुरदिन दुरजोधन के, जोधनि कौँ कैधों रैनि बोधन कराया है। कहै रतनाकर द्विविध अंधराज को कै, राजनि पै संगति प्रभाव दरसायौ है ।।