पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५१६

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कैयौं सिंधुराज तपैं जीवन है धूमधार, पटल अपार पारि तपन छपायौ है। मेरी जान कान्ह भक्त-रंजन कृपा के पुंज, नेम धनंजय के छम-छत्र छायौ है ॥१०॥ जानि-जानि भानु कौ पयान जुरे आनि सबै, कढ़ि-कढ़ि जूह के अनूह अरबर सौं। कहै रतनाकर अभाग निज जारन कौं, दारुन अरी की चिता-अागि की लबर सौं। तौलों द्वारिकेस से निमेस को निदेस पाइ, सीस कटि बिकट बिजै के सरबर सौं। अंसुधर अंसु जौ लौँ पहुँचैं धरा पै पुनि, सीस उड्यौ अधर जयद्रथ के घर सौं ॥११॥