पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५१७

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टारचौ जौ कलंक-तम - तोम राजपूतनि को, बीस बिसे जाइ सो दिलीस - हग छायौ है । कहै रतनाकर हरयौ जो जाड़ भारत को, साई पैठि पारस को पंजर कैंपायौ है । प्रबल प्रताप कौ तपाकर-प्रताप-ताप, जमन-कलाप-मुख-आप जो सुखायौ है। तुरकिनि-आँखिनि मैं भाप कै छयौ सो सवै, रुकत रुकायौ औ न चुकत चुकायौ है ॥३॥ साजि-साजि पाणु बागे पहिरि सुरंग चले, आनन पै कुंकुम उमंग कल दी है। कहै रतनाकर बरन कौं सुकीरति कैं, प्रबल-प्रभाव चारु चाव चढ्यौ जी पै है ॥ कढ़ी परै म्यान सौँ कृपान बिनु लाएँ पानि, ऐसी कछु ठान की उठान आतुरी पै है । ब्याह को उछाह बढ़यौ चाहि निज बीरनि के, ठाट्यौ लै प्रताप ठाठ घाट हलदी पै है ॥४॥ कीनी मिहमानी मन मानि के अतिथि पर, कानि रजपूती की न जान दई कर सौँ । कहै रतनाकर न खायो बैठि थारौं संग, सारौ जानि साह को टिकायौ दूरि घर सौं ॥