पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५२

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प्रकृति-प्रभाव निहारि प्रथम निज सुमति सुधारौ, ताके जाँच-जंत्र सौं, जो नित इक-रस-वारी । प्रकृति अचूक, सदा सुंदर दैवी द्युतिवारी, विमल, बिगत-परिवर्तन, औ सब जग-उजियारी, सब कछु कौं दाइनि जीवन बल औ सोभा की, कारन औ उद्देस्य, कसौटी सकल कला की। तिहि भँडार सौँ कला, कुसलता उचित प्राप्त करि, बिन दिखाव निज काज करति, प्रभुता 'अतंक दरि; त्यौ सुज्ञानप्रद आत्मा कोउ सुंदर तन माही, जीवन दै पोषति, सु ओज सौं भरति सदाही; प्रतिगति सोधति, अपर सकल स्नायुहिँ पोषति नित, आप अदिष्ट सदा, पै कारज माहिँ रहति थित ॥ किते चातुरी जिन्हें दैव दीन्हीं बिसेस चित, चहति तेतियै और, सुभग ताके प्रयोग हित; बहुधा तर्कऽरु बाक्यचातुरी पतिअपकारी, जदपि बने हित-हेत परस्पर ज्यौँ नर नारी ॥ काव्य-तुरंग सुढंग चलावन मैं चतुराई, ताके तातें करन माहिँ कछु नाहिँ बड़ाई काज कठिन अति ताकी बल्गदता को सासन, दैवी द्रुत दौराइ न कछु गौरव परकासन ।