पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५२५

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(७) श्रीगुरु गोविंदसिंह पैठि पठनैटनि के उमगे अँगेठनि मैं, चूर करि ऐंठ सबै धूरि मैं धुरेढूँ मैं। कहै रतनाकर प्रचारयो गुरु गोविंद यौं, मीर मीरजादनि के धीर धरि फेहूँ मैं || सेखनि की सेखी करि देखत अलेखी सबै, दूरि दलि भूरि मुगलदल दपेहूँ मैं। भेटू भब्य भाव देस-भक्त सदपंथिनि के, मोहमद-पंथिनि के मोह-मद मेहूँ मैं ॥१॥ ढाहै अरि-पास के अकास तिनि सीसनि पै, होस कौँ हवा कै हवा उनकी उड़ावै हम । कहै रतनाकर गरजि गुरु गोबिंद यौँ, जमन-निसानी लोह-पानी सौं बहावें हम ॥ जारि जारि प्रखर प्रचंड रोष झारनि मैं, छार उनहीं की उन-आँखिनि पुरावै हम । पंच तत्त्व हूँ मैं निज भाव सत्व संचित के, म्लेच्छ-दल बंचक पै पंचक लगाएँ हम ॥२॥