पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५२६

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चाबि लोह-चनक अघाइ देस दच्छिन साँ, पच्छिम बढ्यो जो तृषा-व्याधि अधिकानी है। कहै रतनाकर गुबिंद गुरु विदि यहै, लोह ही के पानि सौं सिरावनि की ठानी है। जीवन की आस नासि सासक दिली को भज्यौ, बिकल बिहाइ सान कानि गोरकानी है। छाँडि असि परसु अठार कुंत बान कहूँ, पंचनद हू मैं जुरचो रंचक न पानी है ॥३॥ चाहि चतुरंगिनी अकालिनि की काल-रूप, भूप नवरंग रंग एक ना उघारै है। कहै रतनाकर अमीर मीर पीर कोऊ, रन रुकिये को धीर रंच हू न धारै है ॥ त्यागि त्यागि संगर अभागे फिरै भागे सबै, कोऊ ढंग पै ना मीच-फंग सौ उबार है। जानि जिय गायनि की गोबिंद दुलार सदा, बी दि बी दि गोविंद गवासनि संघार है ॥४॥ देखि देखि विक्रम अभिक्रम अकालिनि के, कालिनि के नाद साधुबाद बहु दीन्हे हैं । कहै रतनाकर कुरंग अवरंग भयो, भाजे सेन रौंदत मतंग बिनु चीन्हे हैं।