पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आज गुरु गोबिद बिरंचि रचना में जस, पंचगुने भूपति भगीरथ सौ लीन्हे । संचि संचि जलन पंचिनि हो स्रोनित सौं, पंचना माहि हर पंचनद कीन्हें हैं ॥५॥ LES सूबा-सरहद सं गब्बर गिरिंद आनि, जानि जिय अब्बर अनंदगढ़ धेरयौ है की रतनाकर गुबिंद गुरु विदि घात, निज रनधीर बौर बृदनि की टेरचौ है । कढ़ि कदि बाहिर उमहि कहि वाह-गुरू वदि नेजा असि-न्याव निबटेरयो है माते अरि-करिनि करेरनि दरेरची दीरि, मानौ कुल केहरि हेर निज हेरचौ है ॥६॥ थापे भीति माहि जो अभीत जुग बाल बृच्छ, तिनका यथेच्छ मलेच्छ लौन सौसिचाऊँ मैं। कहै रतनाकर लहौर सरहिंद-सेन, कुंत-करबार-बान फलनि अघाऊँ मैं॥ हम तुम जीवित रहे जो कछु काल तोव पुरुष अकाल महा महिमा दिखाऊं मैं । चाहत हमें जो निज कलमा पढावन सो, वाह-गुरू मंत्र नव अंत्र में मढ़ाऊँ मैं ॥७॥