पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५२८

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जैसैं मदगलित गयंदान के बृद बेधि, कंदत जकंदत मयंद कढ़ि जात है। कहै रतनाकर फनिंदनि के फंद फारि, जैसे विनता को नंद कढ़ि जात है। जैसे तारकासुर के असुर-समूह सालि, स्कंद जगवंद निरद्वंद कढ़ि जात है। सूत्रा-सरहिंद सेन गारि यौँ गुविंद कढ्यो, ध्वंसि ज्यों विधुतुद की चंद कढ़ि जात है ॥८॥ गढ़ चमकौर सौ चपल चमकाइ तुरी, अातुरी-समेत रन-खेत बढ़ि आया है। कहै रतनाकर विच्छिनि यो लन्छ कियो, उच्चयीस्रवा पै सहसाच्छि चढ़ि आयौ है । श्रीगुरु गुबिंदसिंह बैरिनि बिदारत यौँ, मानौ विकराल काल-मंत्र पढ़ि आया है। ताव देत ताजिहिँ सवारनि काँ दाव देत, पाव देत पैदल बिदलि कढ़ि आयौ है ॥९॥ भारत की दीन दसा दारुन निबारन को, श्रीगुरु गुरिंद महा जज्ञ-विधि चीन्ही है। कहै रतनाकर कठेटे-पठनैटे-सेख- सैयद-मुगल-सेन समिधा सु लीन्ही है ।