पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यह बाजी परदार, सुसील असील तुरी लौँ, प्रगटत पूरन गुन प्रभाव रोको तुम जौँ जौँ॥ नियम पुरातन आविष्कृत, जो कृत्रिम नाही, आहिँ प्रकृति, पर प्रकृति घिरी परिमित पथ माही; प्रकृति होति केवल, स्वतंत्रता लौं प्रतिबंधित, तिनहिँ नियम सौं पहिले जो ताही के निर्मित ॥ गुनहु भारती निरमति कहा नियम उपकारी, कहाँ सिथिलता उचित, गाढ़िता कह रसवारी । निज संतानहि उच्च मेरु-गिरि पै दिखराए, अति दुर्गम ते पंथ चले तिन पै जे भाए; पुरस्कार थाई, ऊँचौ करि, दुरि दिखाया, सोई पथ सौं चलन काज औरनि उकसाया। उचित उदाहरननि मैं सद सीक्षा जो थाई, इन संची उन सौं उन दैव कृपा सौँ पाई। सहृदय, सुधर बिबेचक कबि उत्साह बढ़ाया, पूरितश्मा प्रसंसा करिबी जगहि सिखाया: समालोचना तब कविता की सखी सुहाई, मंडनि सोभा, तथा बिसेष करनि मन-भाई । पै पछिले लेखक सा सुभ उद्देस भुलाने, सके नायिकहिं मोहि नाहि दासिहि अरुझाने;