पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५३१

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अन्न-जल जाको पाइ परम प्रसन्न रहे, ताकों हाय इमि अवसन्न किमि चैहैं हम । कहै रतनाकर सपूत राय चंपत को, म्लेच्छनि अपूत के न पद सौं दलैहैं हम ॥ उद्धत अधर्मिनि के कुटिल कुकर्मिनि के, दास है उदास इहि नरक न हैं हम । कैतौ भूमि भारत का सरग बनै हैं अबै, कैतौ तेग झारि बेगि सरग सिधैहैं हम ॥३॥ लगन धराइ कै लिखाइ बेगि चीठी चारु, बाकी खाँ बसीठी दिली नगर पठाई है। कहै रतनाकर तुरंत रनदूलह की, बिसद बरात सेन सज्जित सिधाई है। कढि कढ़ि बाँकुरे बुंदेला रन-मांडव मैं, बढ़ि बढ़ि घोर घमसान यौँ मचाई है। भागे सबै भभरि अभागे रन त्यागे चंपि, चंपत के लाल बिजै-बाल बरि पाई है ॥४॥ है कै दलमलित बुंदेलनि के रेलनि सौं, मुगल पठाननि के मान मद मरके। कहै रतनाकर ततार असवार लिए, रूम सामहू के सरदार हारि सरके ॥