पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५४

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कविनि बिरुद्ध प्रयोग किये तिन निज बल तीखे, निस्चय निंदन हेत तिन्हैं जिनसाँ सब सीखे ॥ त्यौ सीखे कछु आजकाल के औषधिवाले, बैद-व्यवस्थनि पदि बनि बैठन बैद निराले, निडर प्रयोग करनि में नियम निपट मनमाने, करत चिकित्सा औषधि, कहि निज गुरुहि अयाने ॥ किते पुरातन-कनिनि-लेख पर दाँत लगावें, इनके सहस न काल न कीट कबहुँ बिनसावें ॥ केते सूखे स्पष्ट, रहित नव उक्ति सुहाई, सिथिल नियम निरमत कैसैं करिवी कबिताई ॥ ये, बिद्या-प्रकास-हित अर्थानंद बै अनर्थ करि अर्थ-तातपर्यहिँ बहकावें ॥ तुम जिनकी बिबेचना रखति सुपथ रति, चाल चलन प्राचीननि की जानौ आछी गति तिन गाथा अरु बर्म्य प्रयोजन प्रति पंक्तिनि के, धर्म, देस, प्रतिभा, जो सुखद समय मैं तिनके । पाली भाँति ध्यान राखें बिन इन सबही के। जदपि सको करि तुम कुतर्क, पर न्याय न नीके । बालमीक मुनि रचित सदा अध्यवहु सुरुचि करि, पदौ ताहि भरि द्यौस, रैन भरि गुनौ ध्यान धरि; नसावै, ताते