पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५४२

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पैठि परया बीरनि समेत सोमदेव धीर, चेते कछु चकित अचेत सुरासेबी ज्यौँ । एकाएक आनि के महान् अजगैवी परी, दीसति फरवी समा रकत-रकेवी ज्यों ।।५।। कि के स्वतंत्रता का मंत्र सेन-अंत्र माहि, छत्री-धर्म-कर्म की समर्म सुधि द्याई है। कहै रतनाकर सपूत राजपूननि कैं, पूत-देस-भक्ति-महा-सक्ति जिय ज्याई है। दुवन फरेबी को फरेब-फल देवे काज, चाय की रचाय नीलदेवी सुरा प्याई है। जमन जरार फौजदार फारि खंजर साँ, पंजर साँ पति की निकासि लास ल्याई है ॥६॥ मारि निसि-छाप मूरदेव काँ गयौ जा कूर, फलन न पायो सौ फतूर वा फरेबी का । कहै रतनाकर सु आर्य-महिला के कर, छाकै बन्यौ ताकै निज परस्यो रफेवी का ॥ जाको चारु चरित समच्छ सब कच्छनि के, लच्छ है प्रतच्छ लसै दच्छ देस-सेवी को। जमन कुडीलनि के मंद मुख नील कर, सुजस समुज्जल सुसील नीलदेवी को ॥७॥