पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५४३

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चढ़त चिता पै नीलदेवी के उमंगि जुरी, देवनि के संग देव-अंगना जुहारती । कहै रतनाकर करनि कुसुमाकर लै, पुलकित है है धन्य-धुनि कै उछारती ॥ द्वै द्वै दिव्य आसन सिँघासन पै रीते राखि, आँखिनि निहारती सुभाषनि उचारती । जौला कवि भारत के भारती सँवारचौ करें. तौलौ तव आरती उतरचौ करै भारती ॥८॥