पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५४४

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(१३) महारानी लक्ष्मीबाई दीह दल सानि गानि नत्थे खाँ समत्थ चढ्यो, झाँसी के निवासी भरे भूरि भय भारे हैं। कहै रतनाकर प्रतच्छ लच्छमी सो लच्छि, दच्छ निज पच्छिनि समच्छ ललकारे हैं । धधकत गोलनि के तांते अरि-मुंडनि पै, तुंग गढ़-मुंग ते भुसुंडिनि प्रहारे हैं। खूटे-आयु-औधि-द्यौस फूटे-भाग वैरिनि के, टूटे मनी नभ त कतारे बांधि तारे हैं ॥१॥ पीठि बाँधि बालक बिराजि घर बाजि ईठि, जाकी दौर देखि दीठि छकित छली गई। कहै रतनाकर विपच्छिनि के कच्छनि सौं, लच्छमी प्रतच्छ अच्छि आगे निकली गई । अचल उदंड परिवंडनि के मंडल में, डंड ला अखंडल के खंडत हली गई। झारति कृपान साँ गुमान ज्वान जंगिनि के, फारत फिरंगिनि के फर काँ चली गई ॥२॥