पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५४८

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(१४) श्री ताराबाई राजपूत बीर जो निसेस देस-पीर करै, ताकौं सुख मानि पानि प्रापनी गहाऊँ मैं । कहै रतनाकर तिवारा भरि तारा वाच, ना तरु कुमारी रहि आप चढ़ि धाऊँ मैं । मंडि रन-मंडल उमंडि चंड चंडी सम, प्रवर प्रचंड खंड-धार धमकाऊँ मैं। तात की विपत्ति-बिथा विषम बहाऊँ अरु, मात की अपूती-दाह दारुन सिराऊँ मैं ॥१॥ साजै बीर बाहिनी वरातहिँ उचाहि नीके, बैरिनि की खाल खै चि दुंदुभी महावै जो । कहै रतनाकर पछाडि देस-द्रोहिनि को, फाड़ि के करैजी हाड़-भूपन गढ़ावै जो ॥ मातभूमि-वेदी पै हिए की दाह साग्वी राखि, सबिधि स्वतंत्रता के मंत्रहि पढ़ावै जो । वाही बर बीर कौं वरों में अनुराग पागि, अरि उर-राँग मांग सेंदुर चढ़ावै जो ॥२॥