पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५

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तासौँ बिसद विबेक लहहु, निज नियम ताहि सौं, कबिता बिमल बारि संचौ सरिता आदहिँ सौं ॥ आधुसही मैं करि मिलान तिहि काव्य बिचारी, आदि सुकवि की बानी निज चरचा निरधारी ॥ कालिदास जव प्रथम उदार हियँ निरधारी अमर भारतहुँ सौँ रचना चिर जीवनिहारी, समालोचकनि नियम गम्य सौँ उच्च लखान्या, सीख लेन औरनि सौं घृणित प्रकृति छुट मान्या ।। पै जब प्रति खंडहिँ करि सूच्छम दृष्टि बिचारयो, बालमीक अरु प्रकृति माँहि नहिँ भेद निहारयौ, यह निस्चय उर माहिँ आनि अति विस्मय पायो, निज रचना उदंड गति के बेगहिँ ठहरायो औ कविता समसाध्य अटल नियमनि यौं नाधी, मनहु आप मुनि भरत सुद्ध प्रति पंक्ती साधी । या सीखौ नियम पुरातन के गुन गावन, प्रकृति-पंथ को है चलिबौ तिन-पथ को धावन ।। किती रम्यता अजौँ न कोउ बचननि कहि आवै, तिनमें आनँद औ विषाद दोउ मिस्रित भावे । काव्य-कला संगीत सरिस जानौ मन माही, दोऊ मैं सौंदर्य किते जे उचरत नाही;