पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५२

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जोनी जोग ला योनी भोग-व्यात बधि सबै ब्रह्म अवराधे ज्ञानी गृह-सुव-साधा के । है रतनाकर विगगी राग त्यागै ऐति गगें पटराग रागी विरति अवाधा के ।। ऐसी कछु बानक बनाइ दै विधाता नदि तो पै गुनै ताकी लाकि कम्ना अगाधा के । धाइ ब्रज-वीथिति अलाइ जमुना के चारि एको वार उमगि पुकारे हम राधा के ॥२॥ सात भीमटिल कटाच्छ वेधि । कमा प्रभा भौहनि मैं भाई है। कह रतनाकर प्रभावहीन बैननि ओ भानहीन नैननि दिखाति दुचिताई है। हा हा किन कारन उचारन करति कहा वारन उवारन की मुधि विसगई है। कीन्या महार का निभाने कीन मेवफ की जाम नाप मानस की भाप इन छाई है ॥३॥ (२) श्रीब्रज-महिमा दुरि करित्र का तन मन को मनान सत्र आर्या इहि प्रोक याप तीन लोक-त्राता हूँ। कहै रतनाकर रुचिर रुचिकारी जाहि जाने संभु-सहित गजानन की माता हूँ।