पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५३

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आह इहिँ घाट पै धुवाइ पट मानस को होत सुचि स्वच्छ सँतर में खूप दाता हूँ। ऐसौ देखि पातक पलारन को या खार ब्रजरज संचि बन्यो रजक विधाता हूँ॥१॥ सिलि की सिद्धि को समद्धि रूप-वृक्षनिधी परम प्रसिद्ध सिद्धि प्रेय-लिधिर की। रतनाकर सुरक्ष-रतनाकर सुचि रतलाकर-निधान यूरि घरको । भक्ति की प्रति झुक्ति मुक्तिनि की शूति मंजु परम प्रभूत है विभूति बिस्वभर की। बूंदारक-बूंद जाम लहत अनंद-कंद ऐसी रज बंध बृन्दाबन के इगर की ॥२॥ भेजे देत जीव जंतु संतत न जाने कहाँ मानै यह तंत पै पतो न हि जाइगरे । कहै रतनाकर विधाता कहै त्राता टेरि कब लौँ कहो तो खीस-खाता साहि माइलो ।। हेर-फेरहू तो मेरु होत या जरा मैं नाथ अब ना नए सिर सौँ पठ हि जाइगो । भाव रहि जाइगो यहै जो ब्रजमंडल को मानिनि के भाव को अभाव रहि नाइलो ।। ३ ।।