पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५४

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तन की कहै को मन प्रान पातमा हूँ सबै याही के कनूका पै तिनूका लौं लुटैहै हम । जौ हूँ ब्रजवासी प्रेम पद्धति उपासी तऊ अन्य धाम स्याम हूँ साँ मिलन न हैं हम ॥६॥ (३) श्रीराम-विनय पाइ बर गोपी ग्वाल है कै संग खेलन को आनंद सकेलन को मौज मन भाई में । कहै रतनाकर मुनीस बन दंडक के मगन उमंग की तरंग सुखदाई मैं॥ भूलि भूलि देस-काल-ज्ञान गुन-मान सबै पूछत परसपर सरस अतुराई है। ब्रज की जवाई में कितेक वेर लागै कहौ कैक दिन और अहो द्वापर अवाई मैं ॥ (४) श्रीअयोध्या-महिमा जिनके परत मुनि-पतिनी पतित तरी जानि महिमा जो सिय छुवत सकानी है। कहै रतनाकर निषाद जिन जोग जानि धोए बिनु धूरि नाव निकट न आनी है।