पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५७

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गंग को न धार जो सिधारि जटा-जूटनि में भूप विनती विनु धधाइ धरा धैहै ना। कहै रतनाकर तरंग भंगहू की नाहि जो निज उमंग और अंग दरसैहै ना ॥ यह करुनाहूँ की कदंविनी न नाथ सुनौ ताप बिनुहीं जो द्रवि आप झर लैहै ना। यह तो कृपा की धुनि-धार है अपार संभु मानस ढरारे में तिहारे सकि रहै ना ।।५।। (६) श्रोकाशो-महिमा बाधौ गंग हुँढी डंडपानि का छीने लेत कछु कर कीने लेति भैरव-जमाति है। कहै रतनाकर हमारी पाप-रासि सबै देखत ही संभु के हठाहठ हिराति है। इमि चहुँ ओर सौँ झपट झकझोर हेरि तू हूँ मुख फेरि अंब मंद मुसकाति है । कासी की कहा है अब जगत न ऐहैं हम माई इहाँ जनम-कमाई लुटि जात है ॥ १ ॥ विधि औ निषेध को न भेद का राखति है ताहू पर वेद मंजु महिमा प्रकासी है। कहै रतनाकर हमार जान यामैं कछू राजति नवल नटराज की कला सी है।