पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५८

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जऊ तकत त्रिलोक को त्रिसूल निरमूल करै आप त्रिपुरारि के त्रिमूल पै तुला सी है । सबकी बिलाति महा-पातक जमाति यामै तौहूँ पुन्य-रासी ही कहाति यह कासी है ॥ २ ॥ छूटत ही साथ भूतनाथ के नगर माँहि विषम विचित्र बने बानक लखात हैं। कहै रतनाकर ये जनम-सँघाती तौहूँ नाहिँ अँटिबे कौँ पुनि समुहात हैं। भेद-कूटनीति सौँ कछूक फूट फैले इमि फेरि ना परस्पर कदापि नियरात है। पंचभूत भूत-मंडली मैं जाइ बैठे ऍठि पान त्यौँ अभूति की विभूति मिलि जात हैं ॥३॥ बिधि सौँ कहत जम जिय बिलखाइ हाय कासी को सुभाय काहू भाय सुधरै नहीं। कहै रतनाकर सो लोक तीनि हूँ ते कढ़ी मूली के त्रिमूल चढ़ी तदपि डरै नहीं ॥ राखति है अकस तिहारी रचना सौँ इमि बस परि याकै प्रानी उतकौँ ढरै नहीं। सौ कछु मंतर फुकाइ देति काननि मैं पंच के प्रपंच रंच सो पुनि पर नहीं ॥४॥