पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५५९

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मानि कासिका कॉ सुभ-सासिका बस्यौहाँ पानि जानि सरनागत कौँ स्वगत सुखारे देति । कहै रतनाकर लखात सही सो तौ सवै विविध बिनोद मोद तन मन वारे देति ॥ पर अब जान्यौ जन भावत न नैंकु याहि पूँजी ही विलोकि रोकि आनँद-सहारे देति जनम अनेकनि की करम कमाई छोनि आपकी कौ को तीनि लोक सौँ निकारे देति ॥ ५॥ (७) श्रीहनुमदुमहिमा संतत हिमायत-हमेव में छक्यौ सो रहे ताकी छाक छनक उछाकि को सकत है। कहै रतनाकर जमी जो जग ताकी धाक ताहि फलफंदनि फलाकि को सकत है। ताके सामना की करि कामना कुटिल कूर मूढ़ मदचूर है न थाकि को सकत है। बाँह दै वसावै जाहि वाँको हनुमान ताहि तनक तेरेरि तीखें ताकि को सकत है ॥१॥ दलिमलि जात दर्प दुष्ट-दल-दानव कौ पूरै आयु पिसुन-पिसाचनि पत्यारी की। कहै रतनाकर विलाति सुख-स्वम-साध बाधक विपच्छि-पच्छ-राच्छस कुचारी की।